मैंने मंजिल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले



चित्रकार और बाज़ार तब दो सिरे हुआ करते थे
बाज़ार केवल जब उद्योगपतियों के गढ़ हुआ करते थे
बेचीं नहीं जाती थीं कृतियाँ तब बाज़ारों में
खरीदार आते थे और दे जाते थे
मुंहमांगी कीमत चित्रकार को उसकी कृतियों की
जो रचनाएँ तब कीमत के साँचें में नहीं ढलीं
एंटीक बन, वो समय के साथ
अनमोल हो गईं

समाज जब व्यावसायिकता से घिर गया
बाज़ार ने तब व्यावसायिक चित्रकार को जन्म दिया
चित्रकार की सृजनशीलता और रचनात्मकता
ने खो दी अपनी मौलिकता
और ओढ़ लिया व्यावसायिकता का चोला
हौले हौले उसके अंदर का चित्रकार दफ़न हो गया
और बँधुआ चित्रकार का उदय हुआ
प्रायोजक तय करने लगे
इन बाज़ारों का रुख
जिस रचनाकार का जितना बड़ा प्रायोजक
उसकी रचनाओं की तय हुई उतनी अधिक कीमत

एक ज़माना था नीरज जैसे कवियों का
जो कभी बिके ही नहीं,
कृतियाँ जिनकी बिना बिके अनमोल हो गईं
एक ज़माना है आज का
जहाँ हर रचनाकार
प्रायोजक से मिलने वाली कीमत
को ध्यान में रख
अपने खुद के मूल्यों  और उसूलों से सौदा कर
रचता है रचनाएँ
जो बिक जाती हैं तय कीमतों में

अनमोल रचनाओं का ज़माना अब नहीं रहा
ढल जाती हैं जो रचनाएँ
कीमत के सांचों में
वो सीमित होकर रह जाती है
यही तो हैं सामयिक उद्धरण
सामाजिक बदलाव द्वारा सृजित
एक चित्रकार की चित्रकारिता का अवतरण

डॉ अर्चना टंडन 




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