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Showing posts from November, 2018

The Harsh Conclusion

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The link to where I recite the poem https://youtu.be/AJ-Nru0_TDY Those eyes said They wanted to keep on observing Those hands said They wanted to keep on writing Those lips said They wanted to keep on smiling The heart said It wanted to keep on loving The mind said It was satisfied But not ready to sleep The ears heard And the mind understood And put in all its efforts Not to give in But destiny was not on her side Though the self efforts Were not ready to give up The dwindling heart Had no one on its side Slowly the reversible Became irreversible With the curvy lines Becoming straight Slowly dawned the realisation Of the lost fight With it dawned the infliction Of the foisted loss on us Which reciprocally meant A divine gain for her Dr Archana Tandon

खुद्दारी और हक़

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खुद्दारी से हमेशा लबरेज़ रहा मैं अपनी अपेक्षाओं को नहीं दर्शाया कभी अपनों की एक आवाज़ पर  न्यायपूर्ण युद्ध करने निकल पड़ा मैं तब मैं बलिष्ठ था, रूतबा था मेरा सलाहकार भी था तब तो इशारों से अपने मार्गदर्शन भी करता था ज़रुरत पड़ने पर सब की गुज़र हो, भलाई हो  पारिवारिक उत्थान से सामजिक उत्थान हो एक सपना देखा था मैंने डिपार्टमेंट, परिवार और अपने मरीजोंको मीठी गोली की पुड़ियों से मर्ज मुक्त कर अपनी रेलवे की नौकरी के साथ होमियोपैथी के रथ का सारथी बन दीर्घकालिक सारभौमिक उत्थान  पर विश्वास किया था मैंने आज मैं जीर्ण हूँ, फिर भी खुद्दार हूँ नहीं रखता अपेक्षाएं किसी से हक़ क्या है ये कभी सोचा ही नहीं अपने लिए अपनों से कोई हक़ की अपेक्षा रखता है भला जिनके लिए हड्डियां गला दीं उनसे क्या कभी हक़ की दरकार करूंगा ? तुम मेरी खुद्दारी का आदर करते हो तो हक़ खुद बा खुद ससम्मान दोगे वरना तो इस तीन बाई छह के पलंग पर ज़िन्दगी गुज़ार दी  अपने छह बाई बारह के कमरे में तो अब क्या चाह बची है? खुद्दारी मेरी बनी रहे हक़ की नहीं रही कभी दरकार अपनी खाट और अपनी

असीमित निर्धारण

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टापू घिरे हैं  चहुँ ओर फैले जल से, दलदल से फिर भी सहारा दे रहे हैं अनगिनत रूपों में विद्यमान जीवन को सदियां लग जाएँगी ये जानने में कि वो थल के डूबते हुए हिस्से हैं या कि उभरते हुए सांसारिक स्वरूप जो  पल पल बदल रहा है और सदियों से  जो खेल चल रहा है वो दीखता कहाँ है कभी किसी को चक्रवात, तूफान,भूकंप  और धरती का फटना तो क्षणिक उथल पुथल हैं जिन्हें झेल वो फिर जीवन को सहारा दे एक नया स्वरूप धरता है आज का टापू  शायद कल का  हिमशिखर है  और सदियों बाद का समुद्रतल डॉ अर्चना टंडन

Epilogue

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Negatives are as realistic as positives  And are responsible for one's fate Distinguishing boundaries between them Is difficult to create Situations and dramas of life Justify the existence of each as ambiguity  Its here that Equivocacy  Provides the desired solemnity On the T-bend To bypass the trauma of negatives A flyover should be created Of understanding, tolerance, love and compassion To pragmatically reach One's desired goal  And to quench the thirst Of the yearning soul Dr Archana Tandon

कर्म बोध

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मक़सद है तो है ललक है सम्पूर्ण होने की कसक और कहीं अधूरा रहने का विभ्रम भी कर्म है तो है पूजन है मन की शांति साथ अपने लिए सुकून और तृप्ति मकसद में है छुपी आसक्ति पूरा हो तो प्रलोभन का अंदेशा न पूरा हो तो विरक्ति का भय कर्म है तो है संतुष्टि आसक्ति से मुक्ति और आत्मिक सुख की अनुभूति मक़सद है तो है अनवरत दौड़ है इस होड़ में टूटने का भय और घुटन भी बेशुमार कर्म है तो है ये इक भ्रमण निरंतरता का चोला पहने सम्पूर्णता का एहसास लिए इक स्वर्गीय ठौर डॉ अर्चना टंडन

कदाचित्

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थिरकते समाँ में थमी हुई रूहें रौशन समाँ में रोशनी तलाशती रूहें इंद्रधनुषी फैलाव में सिमटी हुई रूहें अनुराग की बरसात में विराग तलाशती रूहें गुलामी की गर्त में डूब आज़ादी तलाशती रूहें बहिर्मुखी प्रतिभाओं के बीच अंतर्मुखी होती रूहें अनुरक्त करते माहौल से विरक्त होती रूहें शायद चंचलता में स्थिरता ढूँढ रही थीं क्षणिक अस्तित्व में शाश्वत होने का गुर सीख रही थीं सांसारिकता में खो  पारलौकिक सुख भोग रही थीं डॉ अर्चना टंडन