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Showing posts from March, 2017

समाहित होना मेरा

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मुझ से मुझ को कभी न जुदा सके तुम बाहुपाश में अपने मुझे, कभी न भर सके तुम जब से मैंने अपना अस्तिव है पाया नहीं समझा तब से किसी को भी पराया तभी से आगोश में रहना मुझे न भाया तुम तक पहुँचूँ इस ख्वाइश को कभी न दर्शाया मन ही मन तुम्हें दुनिया से छुपाया  ताकि तुम मुझमें समा सुरक्षित रहो पूर्ण करते रहो मुझे अपनी समझ से  लगातार, अनवरत दीक्षा देते रहो उलझाते रहो मुझे अपने परिपेक्ष्य में ताकि मैं सुलझ सकूं - डॉ अर्चना टंडन

अंत्योदय से सर्वोदय की ऒर

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मलहम लगाओ किन्तु कटार चलाना मत भूलो हमले के लिए नहीं अपितु आत्मरक्षण के लिए, आध्यात्मवादी वीर बनो चातुर्य तुम्हारा गरिमामय हो चेतना,न्याय, समदर्शीपन, विवेक, कर्मठता , सृजनशीलता को आत्मसात कर हमलावर के बल प्रयोग को सही दिशा देने की कला सीखते हुए जियो, जीने दो और जिलाओ डॉ अर्चना टंडन

गरिमामयी आँचल

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“Give the ones you love wings to fly, roots to come back to and reasons to stay.” Dalai Lama XIV गरिमामयी आँचल /वटवृक्ष की छत्रछाया पर आज कुछ शब्द चंचलता चपलता से विभोर क्षणों में भी कुछ क्षण थे जब वो लिपट लिपट कर रोए कुछ सुकून उन्हें मिला तो कुछ तर हम भी हुए  सच है, हर पुकार को है एक आँचल की दरकार और हर आँचल को प्यार की आस बेशुमार पुकार और आस का जहाँ हो मिलन वहीं ठौर पा जाए हर धड़कन क्योंकि पेड़ सा आँचल हो छत्रछाया देनेवाला वटवृक्ष हो भटका पथिक हो असमंजस बेहिसाब हो तो सिमटेगा ज़रूर उस आँचल की गोद में वटवृक्ष की ओट में दिलदार वटवृक्ष  भी बरसाएगा अपना सब कुछ आसरा दे, जीवन की ललक बरसा वो फिर आज़ाद कर देगा पथिक को  और कह कर अलविदा रूबरू होगा फिर एक बार, वह दानी अपनी खुदाई से  दोहराने, अपने इस रूप को बरसाने एक ममतामयी स्वरुप को -- अर्चना टंडन

रसिका

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यूँ ही नहीं खोती मैं तुम्हारे खयालों में  खोती हूँ अपनी वीरानियाँ समेटने सिमट कर उनमे पा जाती हूँ फिर एक जीने की वजह सजने-सँवरने की वजह हंसने खिलखिलाने की वजह और वीरनियाँ खुद ब खुद सिमट जाती हैं जब खयाल मूर्त रूप लेता है तुम्हारे अवतरण से -- अर्चना टंडन

सठियाते हुए सत्तर की तैयारी

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क्यों उल्लू कहते हो खुद को क्यों कहते हो कि मुंह सिल कर  आँखें घुमा कर बस चारों तरफ देखना ही नियति हो गई है तुम्हारी  तुम, हाँ तुम  जो शायद अब सत्तर के पार हो गए हो क्यों नहीं खुद के ही अंदर फिर ढूंढ पाते वो बच्चा जीने के गुर सीखने से  पहले वाला बच्चा जब तुम अनायास ही मुस्कुरा देते थे शायद याद कर अपने पिछले जन्म की बातें वह मुस्कान जो आनंदित करती थी माँ को और मातृत्व की भावना जगा हर लेती थी उसकी दिन भर की थकान  एक भोली, पवित्र,निश्छल मोहिनी मुस्कान घर के हर सदस्य को आकर्षित आह्लादित करती मुस्कान तुम भी तो अब बच्चे सरीखे ही हो जिस तरह तुम सँभालते थे उन्हें आज सँभालने में लगे हैं वो तुम्हें तुम्हारे लिए ही तो वो हौसला लिए फैसले ले रहे है क़ि तुम्हारे द्वारा दी हुई सीखों से वो अनवरत बिना डरे आगे बढ़ सकें   खुद से निकली धाराओं पर विश्वास कर ईश्वर प्रदत्त अनगिनत सुनहरे पलों का उसकी हर अनुकम्पा का शुक्रिया अदा कर, तुम भी तो अंतर्मन में ही सही  कहीं गुनगुना सकते हो मुस्कुरा सकते हो तो चलो लौट चलो अपने बचपन में  न टोक