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Showing posts from October, 2016

कलयुगी श्रीकृष्ण

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वो उन्हें अपना ही समझते थे कि ज़ख्म जिन्होंने गहरे दिए गैरों का इस्तेमाल कर विषैले तीर दाग दिए कहते हैं सल्तनत का नशा  सब रिश्ते भुला देता है हर शख्स को एक मोहरे में तब्दील करवा देता है उनकी ये बदकिस्मती रही कि वार उनपर हर-बार पीठ पर ही हुए और समझते हुए भी  वारों को वो आत्मसात करते चले गए वार पर वार ने न तो उन्हें विचलित ही किया न ही संतुलन खोने दिया गोया रुख उन्होंने सुदामा बन श्रीकृष्ण द्वार का हर बार ही किया जान कर भी अनजान रहे वो कलयुगी श्रीकृष्ण और सतयुगी श्रीकृष्ण का अंतर हर वार उनका भुला  वो सहर्ष चलते गए समानांतर सतयुगी श्रीकृष्ण ने सल्तनत को बचाने की खातिर  साथ सात्विक मूल्यों का दिया  अर्जुन का युद्ध में मार्गदर्शन ईमान धर्म का साथ देने के लिए किया  कलयुगी श्रीकृष्ण तो हमेशा कलयुगी ही रहा उसने हर शख्स का इस्तेमाल  सल्तनत में अपनी पैठ  बनाए रखने के लिए ही किया डॉ अर्चना टंडन

अक्स

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टूटे हुए आईने में देखकर  आज,   वो अक्स अपना सुलझा सके जीवन की उलझनों को समझकर ईश्वरीय आशीर्वाद का मर्म  कि आइने के टूटने से  कभी किसी का अक्स नहीं बदलता  जैसे कि नहीं बदलता  कभी  जंग खाने से  इस्पात का घटक स्वनिर्माण व स्व-आकलन  तो स्व-निमित्त है आइना दिखाने वाले से कहीं  ज़्यादा साहसिक और अर्थपूर्ण  डॉ अर्चना टंडन

तलाश रिश्तों में रिश्ते की

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गैर शब्द को कभी आत्मसात न किया अपेक्षाओं को भी कुचला था सभी जिम्मेदारियों के एहसासों में खुद को खोकर तुममे खुद को पाने का अरमान पाला था कभी पर कहते हैं न ,सपने सपने होते हैं घनेरे हों या सुनहरे ,उनके अर्थ नहीं होते  प्रतिबिम्ब और परछाईं तो अपनी हो सकती है पर चित्रित चरित्र हमेशा पराए ही होते हैं अपना समझा था सो शिकायत भी की परायों से कहने की तो हिम्मत ही नहीं होती  इसे भी तुम मेरी गुस्ताखी समझ लेना और माफ़ कर देना खुद को क्योंकि तुम्हारे होने से ही तो मैं हूँ मेरे होने से मैं नहीं  -- डॉ अर्चना टंडन

फिर बही बयार

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न आसमान की है चाहत  न ज़मीन पर ही गुमान खुदा और ज़मीर की है आशनां ये   मगर है नहीं ये बेजुबान आज पैमानाए-लुफ्त उठाने की दरकार है हाले-दिल बयां करने से आज इनकार है वो शाम आज ज़माने बाद आई है   कि खुद से गुफ्तगू का आज इंतज़ार है न है वफ़ा की इल्तज़ा  न ही है रहमो करम की गुज़ारिश राहे सफ़र में बेख़ौफ़ चलने दो हमें बस इतनी सी है सिफारिश हक़ से हक़ की लड़ाई में उसूल और घरानों की क्यों दे रहे हो दुहाई शराफत और इंसानियत को देकर तवज्जो पाट दो हर गहरी से गहरी खाई डॉ अर्चना टंडन 

A mother gets justice (Dedicated to Mrs Neelam Katara)

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She was crying for justice For damaged was her inner core The prayers were not enough To quieten her bleeding sore They stood by the story That they had conjured Though no one did believe it Who really was mature They tried their level best  To bribe the judges and the court And made them dance to their tunes To protect their own fort A lot of efforts were put in by them , To get the people confused Pleas put forth increased her pain And left her all the more bruised To her, someone’s morals were the real thing And she kept herself afloat by her fearless tidings With all the confidence she continued with her honest march As they retracted themselves into many a hidings God is there and he is the real protector He is the ultimate judge and the real benefactor People don’t go far who are farce Though saying that godly decisions interrupt them may sound harsh So with faith in fate, she kept on marching With immense belief in her divine self, she

मनन

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जागो ,खोजो और पाओ अपने आपको इन गडमड रास्तों में खोकर भी ढूंढ लो अपने आपको मत भूलो की तुम भी एक हस्ती हो   चाल में सदा तुम्हारी एक मस्ती हो कभी न उसूल तुम्हारे सस्ते हों और कंधे पर तुम्हारे अपने ज़मीर के बस्ते हों चलते रहो चलते रहो अनवरत   खुदाई की चादर बिछाते परत दर परत   डॉ अर्चना टंडन

सूत्रधार ( मोदीजी को समर्पित )

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बिलखते बच्चों व सिसकती बेवाओं  के लिए जिम्मेदार  ये आतंकवाद परोसते ,टूटते प्रदेश व   बिखरे देश बिखरते  अरमानों और टूटती आशाओं  को दर्शाते ये बिखरे आंसू व बिखरे केश उजड़ते जंगलों ,बेघर हुए जीव - जंतुओं  को हकीक़त बनाती व्यापारिक सोच  नदियों , झरनों  व पर्यावरण नष्ट कर  जो आकाओं की लेते हैं ओट  उन सभी को आवश्यकता है इस सूत्रधार की  जो इन्हें एक सूत्र में पिरो सके  इनकी व्यथाओं  के लिए जिम्मेदार  आतंकवाद को थाम सके  अरमानों को दिशा दे सके  बिखरे मोतियों का दर्द समझ सके  जंगलों का स्वरुप लौटा जीव- जंतुओं को बसा सके  नदियों को कलकल बहा सके  झरनों का यौवन लौटा सके  आकाओं को ज़हीन बना सके  और व्यावसायिकता को  आध्यात्मवाद का चोला पहना सके  डॉ अर्चना टंडन  

गडमड है भाई ,सब गडमड है

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गडमड है भाई  सब गडमड है जिस्म तलाशता है रास्ते सुख चैन पाने के वास्ते रूह तलाशती है रास्ते   ज़िन्दगी का मर्म समझने के वास्ते खोया हुआ दुनिया की चालों में  ज़िन्दगी की हसीन वादियों में  आड़े तिरछे गडमड रास्तों पर चलते हुए हर जिस्म पालता है इक आस  रूह से एकीकरण की होती है ये प्यास और पीछा करते हुए वो रूह का सो जाता है एक दिन  एक कभी न खुलने वाली नींद में और फिर शुरू होती है एक नई तलाश रूह ढूंढती है फिर एक जिस्म  बिना पहचाने इस दुनिया का तिलिस्म खो जाती है रूह फिर से और फिर शुरू हो जाता है  एक कभी न ख़त्म होनेवाला खेल उंच नीच का हटो बचो का पकड़न पकड़ाई का  जिंदगी की धेलम-पेल का गडमड है भाई सब गडमड है गडमड रास्तों पर चलते हुए  जिंदगी की उलझन को सुलझा पा गया रूह को जो जिस्म  और पहचान लिया जिस जिस्म ने इस भूल भुलैया का तिलिस्म तो ले लेंगे गडमड रास्ते उसके लिए एक प्रकाशमयी स्वरुप और रूह को आत्मसात कर  जिस्म वह ,पा लेगा एक अलौकिक रूप  डॉ अर्चना टंडन