फिर बही बयार





न आसमान की है चाहत 
न ज़मीन पर ही गुमान
खुदा और ज़मीर की है आशनां ये 
मगर है नहीं ये बेजुबान

आज पैमानाए-लुफ्त उठाने की दरकार है
हाले-दिल बयां करने से आज इनकार है
वो शाम आज ज़माने बाद आई है 
कि खुद से गुफ्तगू का आज इंतज़ार है

न है वफ़ा की इल्तज़ा 
न ही है रहमो करम की गुज़ारिश
राहे सफ़र में बेख़ौफ़ चलने दो हमें
बस इतनी सी है सिफारिश

हक़ से हक़ की लड़ाई में
उसूल और घरानों की क्यों दे रहे हो दुहाई
शराफत और इंसानियत को देकर तवज्जो
पाट दो हर गहरी से गहरी खाई

डॉ अर्चना टंडन 


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