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Showing posts from October, 2017

दुर्गा की नज़र में राम

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राम कौन हैं  राम मेरे और तुम्हारे अंदर वास करने वाले  संस्कार और शिष्टाचार हैं जिसने मनुष्य रूप में सिर्फ एक गलती की शीलवान सीता की परीक्षा प्रजा के कहने पर ली हम मनुष्य हैं, गलतियां होंगी पर राम रुपी सत्चरित्र अगर उन्हें काबू कर लेगा तभी सीता का पुनर्जन्म संभव होगा वरना हर सीता मात्र एक कुल बढ़ाने का साधन बन धरती को पुकारती रहेगी, उसमें समाने के लिए और हर राम इस आहुति को सर नवाता रहेगा क्योंकि अगर राम संस्कारवान थे  तो सीता भी हमेशा से चरित्रवान थी ये तो रावण के प्रपंच ने राम का मनुष्य रुपी रूप अवतरित किया और सीता को धरती की गोद में समाने को मजबूर किया तो अगर राम हो तो राम ही रहो फिर क्यों किसी भी रावण के हाथ मजबूर हो और परिणामस्वरूप अपना सर्वस्व खो ? डॉ अर्चना टंडन 

LOVE-Tender Loving care

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I lay there incapacitated Laboured breathing, asthenia, restlessness I had an occasion to celebrate,  could not I had all cause for love to overflow,  Could not Had only read stories of love and seen movies Had questioned many on existence of love (between couples) Always the reply was  Either a laugh or a chuckle Strengthening my belief that it was more of a struggle of fulfilling duties Understood that males were sex-oriented  And females love oriented And this different understanding  Was always the cause of tussle between couples But these six days that went by  With me gasping for breath Weak to the core  Bought the real picture of love to life He was there by my side  Helping me cope Come back to life To feel alive and continue rocking my style TENDER LOVING CARE yes that is what is love We were not a couple there But he was a person filled with empathy,  My Samaritan, my protector,  My angel, my benefactor My lo

ये है सर्वव्यापी का खेल-(The God In You And Me)

नहीं समझ पाई ये देने लेने का हिसाब कभी क्या है ऐसा जो कभी किसी को कोई दे पाया  और क्या है जो कभी किसी से कोई ले पाया क्योंकि है सब तो नसीब का खेल ही   तो फिर कैसा ये एहसान  और कैसा ये एहसान-फरामोशी का धंधा क्योंकि हम तुम तो एक जरिया मात्र हैं निमित्त तो अदृश्य होकर भी दृष्टिगोचर है  विलुप्त नहीं वो विद्यमान है सर्वत्र डॉ अर्चना टंडन

शीर्षस्थ

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सीखने क़ी भावना प्रबल रहे सदा जीतने की भावना से न शुरुआत करो छोरों को पकड़ने की दौड़ में खोकर खुद को न तुम अभिशप्त करो नैया तो पार सबकी है लगनी  ये जीवन तो मात्र है एक दैवीय चक्र ही उलझनों की चादर ओढ़ जो सोते रहे तुम तो गर्त में खुद को ढकेल हो जाओगे गुम वर्ना तो शीर्षस्थ होने की भावना से सराबोर तुम जब जब उलझनों को धता दे कदम उठाओगे आशीर्वादों के झूले में झूल, परचम लहरा सद्गति को पाओगे ©डॉ अर्चना टंडन

क्या क्षितिज का ही कोई स्वरूप है

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कुछ लोग अधपके से होते हैं  और अधपके ही रह जाते हैं हमेशा कभी भी क्षितिज नहीं पकड़ पाते  या यूँ कहूँ कि क्षितिज तक पहुँचने की चाहत ही नहीं होती उनमें क्यों ऐसे लोग परिहास का कारण बनते हैं  क्यों वो विक्षिप्त समझे जाते हैं  दिशाहीन समझे जाते हैं जबकि यथार्थ ये है कि हर नदी का उद्गम नहीं होता और हर नदी सागर से नहीं मिलती हर नदी की अपनी नियति है  अपना स्वरूप है और अपना स्वभाव है और फिर क्षितिज का भी तो  अपना कोई स्वरुप नहीं डॉ अर्चना टंडन 

भोर

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It is for the first time in the history of India that PMO is accessible to a common man to register one's grievances and extend suggestions. Have forwarded suggestions and written about grievances too and to each of my letters have got satisfactory responsestill date. To one of my suggestion had got this reply and was pained when I heard that Mr Vikas Barala was released on bail after such a deplorable conduct and conduct of crime but my faith has returned with the arrest of both the culprits and I hope and pray for them to be punished as per law as well as I congratulate the brave girl Miss Varnika Kundu on taking a stand and getting the culprits booked !! तमन्नाओं की राख जिला रही है कई नए अध्याय शुरू करा रही है दफ़न हो गई थीं कई ख्वाहिशें  जो कब्रों में कभी,  मज़ारों में की गई दुआ से तेरी आज क़ुबूल हो पा रहीं हैं पहले कहाँ होता था कोई रसूखदार गिरफ्तार दबा दी जातीं थीं हर आवाज़ जो उठती थीं सियासतदां के खिलाफ आज फिर वो समय आया है सियासतदां के खिलाफ

जीवनदान

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इक सैलाब आज धार बन  बह निकला है मत तुम इसे आज रोकना इक बाँध जो बरसों से इसे थामे था आज जर्जर हो ध्वस्त हुआ है तुम इस पर आज विवाद न करना क्योंकि चमक है इसमें आज ये स्याह नहीं बरसों का इसमें सिमटा सकुचाया वेग नहीं ये यौवन है इसका आज जो बह निकला है हरियाली चहुँ ओर बिखेरने को ही शायद आज ये आज़ाद हुआ है  बहने दो इसे ये सैलाब है प्यार का विश्वास का अरमानों का जीवनदान है जो आज तुमने इसे दिया है डॉ अर्चना टंडन 

आत्म-साक्षात्कार

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चाहा था कोई तो ऐसा हो जो इस ज्वालामुखी के लावे  को दिशा दे सके ज्वलंत इस आत्मा की चीत्कार सुन सके साक्षात्कार हुआ  जब उसकी तस्वीर से तो यकीन हो गया  कि दर्पण में दीख रहा साया मेरा ही प्रतिबिम्ब था  ढूंढ रही थी बाहर जिसे  वो खुद में ही कहीं मौजूद था डॉ अर्चना टंडन 

पुनर्वास

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गुनाहगार के गुनाह करने की वजह को पहचानो गर्त में दबी घुटी साँसों से आँको तमाशबीन न बनो उन साँसों के उन्हें सही राह देने का इक सपना पालो अगर क़ैद भी करना पड़े उन्हें तो क़ैद में उन घुटी साँसों को आवाज मिल सके ऐसे इंतज़ाम कर डालो इस धरती पर जन्म लेने वाले हर शख्स को उसके हक़ से महरूम न कर उस हक़ को कानून की जद में पूरा कर डालो डॉ अर्चना टंडन 

On Rape

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I write this on rape today but I mean it for all inhuman acts that snatch away the rights of any individual and put humanity to shame... When the rape is inevitable Only a defective mindset would say Relax and Enjoy ( Who is backed by the mentality of " Ladke hain, ladkon se galti ho hi jaati hai") A sane and sagacious would always extend support  To defeat the gruesome ploy For countering the terror By castrating the philanderer Welcome the era of gender equality  By pushing away the ruthless mentality Of male power being born to sit astride And females only being born to play docile Its always a balance of the genders That will succeed in doing wonders For each is complimentary to the other As they effectively make up for each others blunders Let both be protector and both be benefactors  In scenarios dependent on varied factors For giving birth to the concept of love and bonding  And to learn the art of sacrific

कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

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जैसा मैने मोदीजी को समझा ..... मेरी नई कविता हाँ एक लाइन माना कि जगजीतजी की ग़ज़ल का हिस्सा है दायरे में न बांधो मुझे कि मैं ज़िंदा हूँ अभी लफ्ज़ और भाषाओँ की सीमा में न बांधो मुझे कि मैं ज़िंदा हूँ अभी लिबासों और परिधानों के स्वरुप से न आंको मुझे कि मैं ज़िंदा हूँ अभी कद काठी रंग रूप के तराजू से न तौलो मुझे कि मैं ज़िंदा हूँ अभी मेरे तरानों फसानों में न तलाशो मुझे कि मैं ज़िंदा हूँ अभी मेरे एकाकीपन के दायरे से तनहा न समझो मुझे कि मैं ज़िंदा हूँ अभी भारत के टुकडों को जोड़ एक महाद्वीप फिर बनाओ कि मैं ज़िंदा हूँ अभी जिस तुष्टिकरण ने देश को बर्बाद किया उसे तिलांजलि दे, सही मायने में आज़ादी पाओ कि हम ज़िंदा हैं अभी इंसानियत का झंडा फहरा दिलों में प्यार बसा,सीमाएं मिटा हर बांटने वाले पैंतरे पर पलटवार कर मोदी के सपनों के भारत में सहयोग दे कि तू ज़िंदा है अभी डॉ अर्चना टंडन

मैंने मंजिल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले

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चित्रकार और बाज़ार तब दो सिरे हुआ करते थे बाज़ार केवल जब उद्योगपतियों के गढ़ हुआ करते थे बेचीं नहीं जाती थीं कृतियाँ तब बाज़ारों में खरीदार आते थे और दे जाते थे मुंहमांगी कीमत चित्रकार को उसकी कृतियों की जो रचनाएँ तब कीमत के साँचें में नहीं ढलीं एंटीक बन, वो समय के साथ अनमोल हो गईं समाज जब व्यावसायिकता से घिर गया बाज़ार ने तब व्यावसायिक चित्रकार को जन्म दिया चित्रकार की सृजनशीलता और रचनात्मकता ने खो दी अपनी मौलिकता और ओढ़ लिया व्यावसायिकता का चोला हौले हौले उसके अंदर का चित्रकार दफ़न हो गया और बँधुआ चित्रकार का उदय हुआ प्रायोजक तय करने लगे इन बाज़ारों का रुख जिस रचनाकार का जितना बड़ा प्रायोजक उसकी रचनाओं की तय हुई उतनी अधिक कीमत एक ज़माना था नीरज जैसे कवियों का जो कभी बिके ही नहीं, कृतियाँ जिनकी बिना बिके अनमोल हो गईं एक ज़माना है आज का जहाँ हर रचनाकार प्रायोजक से मिलने वाली कीमत को ध्यान में रख अपने खुद के मूल्यों  और उसूलों से सौदा कर रचता है रचनाएँ जो बिक जाती हैं तय कीमतों में अनमोल रचनाओं का ज़माना अब नहीं रहा ढल जाती ह

सफ़र वहां तक का

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मैंने तुमसे कब कहा तुम साधू हो जाओ संत बन जाओ सच बोलने की कसमें खाओ तुम तुम रहो बस मुझे मैं रहने दो तुम्हारा मेरा तरीका भिन्न हो सकता है पर ध्येय तो एक है न तो इत्मीनान रक्खो सफ़र जारी रक्खो अलग अलग रास्तों पर चल भी तो हम वहीँ पहुंचेंगे मिलेंगे और गुफ्तगू करेंगे  क्योंकि यकीन है मुझे रास्ता अलग अलग ही सही पर ध्येय तुम्हारा मेरा एक है झूट सच की नहीं है कीमत जब इरादा नेक है डॉ अर्चना टंडन 

अनमोल है आज़ादी

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ढूंढता है हर शख्स एक साथ जहाँ न हो उसे समझना समझाना जहाँ न हो कोई भी अंतर्द्वद्व स्वीकार हो उसकी हर सोच हर कर्म न हो कोई भी जवाबतलबी हो जाए गर अनजाने में कोई नासमझी गलती नज़रअंदाज़ कर, उसके प्रयास पर ही मिले उसे एक मीठी सी थपकी स्वछंद उड़ सके अपनी उड़ानों में भावनाओं में, परिकल्पनाओं में बच सके वो विश्लेषणों से और तार तार जहाँ न किया जाए  उसका हर तराना, फ़साना, तरीका व कृत्य करने का सलीका जहाँ भी ये पैमाना  एकतरफा रहा विफल उस रिश्ते का फलसफा रहा फैलता रहा अवसाद उस रिश्ते का समाज और परिवार में लावा बन तो आज़ाद रहो और आज़ाद करो हर रिश्ते को रिश्तों के बंधनों से सिर्फ जियो और जीने दो से ऊपर उठ इस दुनिया को आबाद करो सांसारिक परिकल्पनाओं को अंजाम दो डॉ अर्चना टंडन 

जीवन चक्र

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सोने के पिंजरे में क़ैद चिड़िया है आवाज़ दे रही खुले में उड़ती चिरैया को  अरी ओ सखी,  बता कैसा लगता है स्वछंद फिरना? न कोई रोक टोक, न बंदिशें स्वछंद उड़ती फिरती है तू खुद जतन कर  खुद के मन का करती है तू अपने प्रेमी से मिल, घोंसला बना अपनी दुनिया आबाद करती है तू सखी बोली,  हाँ मैं खुश हूँ अपनी ज़िन्दगी से पर तुझे देख सोचती हूँ वाह रे तेरे ठाठ नहीं डर है तुझे आंधी पानी का न जतन करना पड़ता है  तुझे कभी खाना जुटाने का न ही प्यास बुझाने का तेरे लिए तो जोड़ीदार भी ढूंढ लाया गया अंडे सेने के लिए एक बंद जंगल बनवाया गया इसको क्या कहूँ किसका नसीब है अच्छा तेरा कि मेरा शायद अगर अगले जनम में हमारे नसीब बदल जाएं हम फिर इसी सोच में नज़र आएं बात पते की थी सो पिंजरे में क़ैद चिड़िया  बोली  समझ गई मैं, ये जीवन है और है इस धरती पर जीवन के कई आयाम रंग बिरंगे रूपहले सुनहले  हर जीवन देता है पैगाम  बस अपने रंग को समझते हुए  है अपनाना  और जीते हुए है चलते जाना  जीवन चक्र समझते हुए  हर पल शुक्रिया अदा करते हुए  फिर चाहे हो  वो विष का या अमृत क

चाँद की किस्मत

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As I dream for fastest trials of rape cases and strictest form of punishment for the rapists . ग्रहण लगे चाँद को देखना पता नहीं क्यों  लोग मानते हैं एक अपशगुन मुझे तो उसे देख मुगले-आज़म की  वो घूंघट लिए मधुबाला है याद आती  मानों चाँद को ग्रहण लगाने आए पर त्वरित कार्यवाही कर  किसी ने फिर उसे उसकी  चमक व गौरव लौटाया हो बहुत घटना पड़ता है चाँद को तब कहीं जाकर ईद हैै होती पूनम के चाँद सी किस्मत हर चाँद की नहीं होती   डॉ अर्चना टंडन

तटस्थ-स्थितप्रज्ञ

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प्रतिबिंब आज साफ़ झलक रहा था क्योंकि शांत था आज समुद्र शांत थीं समुद्र की लहरें तलहटी भी द्रष्टगोचर थी बिखरी पड़ी थी यहाँ अकूत सम्पदा सुन्दर आकृतियां लेती  रंग बिरंगे मूंगे की प्रजातियां छोटे से बड़े आकार वाली सफ़ेद से स्याह, नुकीली से सपाट कुछ चमकीली,  कुछ चमक विहीन सीपियाँ हाँ, आज स्थिर था वातावरण थमी हुई थीं तेज हवाएँ हवाओं के वेग से उठती लहरें और उन लहरों के किनारों से टकराने का शोर आज उसे सांसारिक तिलिस्म  न तो लुभा रहा था न बहला रहा था न ही लहूलुहान कर रहा था हाँ आज वो तूफानों में भी अडिग खड़ा था आज उसे ध्यान के लिए  आश्रम के शांत वातावरण  की तमन्ना नहीं थी हर चीख, दर्द भरी कराहट उत्सवों और समारोहों का शोर उसे छू, छिटक कर बिखर रहा था मानुषिक देह में साधुत्व को प्राप्त किया था उसने ये तो नहीं कह सकती पर हाँ आज वो तटस्थ था स्थितप्रज्ञ था डॉ अर्चना टंडन