जीवन चक्र




सोने के पिंजरे में क़ैद चिड़िया
है आवाज़ दे रही खुले में उड़ती चिरैया को
 अरी ओ सखी, 
बता कैसा लगता है स्वछंद फिरना?
न कोई रोक टोक, न बंदिशें
स्वछंद उड़ती फिरती है तू
खुद जतन कर 
खुद के मन का करती है तू
अपने प्रेमी से मिल, घोंसला बना
अपनी दुनिया आबाद करती है तू
सखी बोली, 
हाँ मैं खुश हूँ अपनी ज़िन्दगी से
पर तुझे देख सोचती हूँ
वाह रे तेरे ठाठ
नहीं डर है तुझे आंधी पानी का
न जतन करना पड़ता है 
तुझे कभी खाना जुटाने का
न ही प्यास बुझाने का
तेरे लिए तो जोड़ीदार भी ढूंढ लाया गया
अंडे सेने के लिए एक बंद जंगल बनवाया गया
इसको क्या कहूँ किसका नसीब है अच्छा
तेरा कि मेरा
शायद अगर अगले जनम में हमारे नसीब बदल जाएं
हम फिर इसी सोच में नज़र आएं
बात पते की थी
सो पिंजरे में क़ैद चिड़िया  बोली 
समझ गई मैं, ये जीवन है
और है इस धरती पर जीवन के कई आयाम
रंग बिरंगे रूपहले सुनहले 
हर जीवन देता है पैगाम 
बस अपने रंग को समझते हुए  है अपनाना 
और जीते हुए है चलते जाना 
जीवन चक्र समझते हुए 
हर पल शुक्रिया अदा करते हुए 
फिर चाहे हो 
वो विष का या अमृत का ही प्याला
बंधन नहीं है ये, जिए जाओ इसे
बिना दिए कोई भी तंज
न कराहो न मुरझाओ
पीकर इसका हर दंश
क्योंकि जी जी कर ही तो सीख रहा है इससे
चाहे हो  राजा या कोई रंक

डॉ अर्चना टंडन




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