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Showing posts from November, 2020

"उमड़ते जज़्बात" डॉ अर्चना टंडन द्वारा रचित एक कविता

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दिल के जज़्बातों को पन्ने पर उकेरना उनमें डूबते उतराते हुए भावनाओं को टटोलना धक्कम पेल की दुनिया में वैराग्य का एक ज़रिया बन भीतर तक तर कर जाता है द्रवित होता है दिल तब और छलकता है जाम आखों से जब आत्मिक संतुष्टि लिए  तो खुशी के आंसुओं का सैलाब बन बह निकलता है एक दरिया जो बहा ले जाता अपने संग भ्रम, अंतर्वेदना और मनोव्यथा और पीछे छोड़ जाता है एक निर्मल द्विअर्थी जीवन की सार्थकता ©डॉ अर्चना टंडन

" कोविड काल का पतझड़" डॉ अर्चना द्वारा रचित कविता

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  सरकार बनाती रही कोविड महामारी को हराने की योजना निरंतर किंतु अपनी मार से रंग अनेक दिखला गया कोविड काल का पतझड़  कहीं तो दहला गई लाइलाज खांसी की ख़ड़ खड़ और कहीं हो गई बीमारी कुछ क्षणों में ही छूमंतर जनता करती रही कहीं तो बचाव के तरीकों से किनारा तो कहीं सेवाभाव से दिखाते रहे राह डॉक्टर बन ध्रुव तारा कहीं तो मौत बना गई दुनियाभर में कई परिवारों को गमगीन और कहीं ये बीमारी घर में कैद परिवारों की ज़िंदगी कर गई रंगीन  रोज़ी रोटी ठप्प कर के रुला गई  कहीं तो ये जनता को  तो कहीं थका गई ये परिवारों को मीलों का सफर तय करा के प्रार्थना कर रहें सब वैक्सीन के रामबाण बनकर आने का पतझड़ से घिरे इस संसार को वसंत बन इस बीमारी से मुक्ति दिलाने का ©डॉ अर्चना टंडन

"वन" डॉ अर्चना द्वारा रचित कविता

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बेतरतीब फैले वन नहीं ईश्वर द्वारा सृजित उपवन हैं ये हरित क्रांति ला धरती को संभालने की उसकी तरकीब है ये निखरते हैं ये संभाले अपने अंदर अनमोल वन्य जीवन कायम रखते हैं ये इस तरह धरती का संतुलन  जंगली जीव जंतुओं के ये खजाने हैं असाधारण जहाँ फसाने गूंजते हैं रंग बिरंगे पक्षियों के हर क्षण मन मोह लेती है यहाँ के बहते झरनों  की गूँजती धुन चौंक जाते हैं जीव जंतु सूखे पत्तों की चरमराहट को सुन पेड़ों के बीच से झांकता सूरज ऐसा होता है प्रतीत मानों स्वर्णिम सूर्योदय सारे दिन हो रहा हो फलित वनक्षेत्र हर देश के लिए अकूत संपदा के भंडार हैं वायु के गैस संतुलन को संभालते ये धरती के पहरेदार हैं © डॉ अर्चना टंडन

"विरासत" डॉ अर्चना द्वारा रचित कविता

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  गर्व है मुझे इस देश की विरासत पर दया और करुणा के ब्रम्हास्त्र पर जहाँ अंकुरित हुए आध्यात्मिकता के बीज सदियों पहले पल्लवित हुए जो वेद-पुराण की कथाओं में  प्रदर्शित हुए अचंभित करने वाली वास्तुकला में  और प्रसारित हुए संस्कृति बन बिखरी जहाँ सदा त्याग और वैराग्य की सांस्कृतिक विरासत  प्राणियों में प्रेम और भाईचारे की लौ  जगी जहाँ सर्वप्रथम उजले भविष्य की ओर अग्रसर इस देश की सनातनी संस्कृति में पलती सभ्यता ही तो नींव थी नष्ट करना चाहा जिसे आक्रांताओं ने रौंदकर ताकि पहना सकें  वो दासता और दयनीयता का चोला हमें कुचलकर अब तो निकल पड़े हैं एक इरादा पाले हम इस विरासत में मिली नींव पर खड़ी करेंगे एक इमारत बुलंद  छोड़ जाएंगे आने वाली पीढ़ियों के लिए एक परिवेश जहाँ फिर पाएंगे वो स्वछंद © डॉ अर्चना टंडन