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Showing posts from January, 2021

सुरक्षाकवच की महत्ता

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  हक़ीक़तों और सपनों  की उधेड़बुन में खोई सपनों को उधेडूँ या  हक़ीक़तों को बुनूँ  ऐसी ही पहेली में गुम चली जा रही थी कि कोविड- १९ ने मानों विराम लगा दिया उधेड़बुन और ऊहापोह की स्थिति से उभार ज़िन्दगी के सही मायनों का दर्पण दिखा दिया चलें हक़ीक़तों का सामना वैक्सीन का सुरक्षा कवच ओढ़  सपनों को वैज्ञानिक विधि से  साकार कर करें विज्ञान की महत्ता को स्वीकार  हक़ीक़तों को अंगीकृत कर ज़िन्दगी का ताना-बाना बुनें डॉ अर्चना टंडन

वह नौजवान

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आँखों में सपने लिए फौलाद सा निश्चय किये जो चल दिया  आत्मविश्वास से लबरेज़ नौजवानी के जोश में उसे न थी परवाह  ज़माने के फरेब से वो तो चला था  इससे बचते बचाते अरमानों को यथार्थ में बदलने अस्तित्व का गणित  गुणा-भाग, जोड़-घटाना समझने में वक़्त नहीं लगा उसे वास्तविकता और पारदर्शिता का जुड़ाव लिये  भेद जब समझ आया उसे तो जीवन रूपी दरिया पार करना लगा भाने उसे अब वो नौजवान आत्मविश्वास से लबरेज़ निपुण मल्लाह बन प्रगति पथ का पथिक था ©डॉ अर्चना टंडन

"Home" A poem by Dr Archana Tandon

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As I lay with my head on her lap With her fingers easing out my afflictions I felt myself emerging from the tormenting trap Of anguish, sufferings and botherations Embraced in her genuine warmth  I found myself unfolding and at home  Affectionately easing out and giving in To the simplistic behaviour of my mother's clone Indeed she was a God sent zealous fairy To create for me heaven on this earth By providing a reclusive space for my soul She did save me from the life's treacherous haul Dr Archana Tandon

"मृत्यु से भय कैसा" डॉ अर्चना टंडन द्वारा रचित कविता

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खफा होने का उसका सिलसिला जारी रहा निरंतर मनाने का क्रम भी चलता रहा समानांतर विमुख कौन कभी किसी और से हुआ कोई जब भी हुआ तो खुद से खुद की ही बढ़ी दूरी हारा भी तो खुद से और जीता भी तो खुद से रूठा भी तो स्वयं से और मनाया भी तो स्वयं को ही दूसरों में उसने अपना प्रतिबिम्ब निहारना चाहा जब भी आज़ादी पसंद वो भला क्यों चाहता रखना किसी को क़ैद में अपनी अंतर्वेदना से ग्रसित उसने आज़ाद तो करना चाहा खुद को ही स्वीकार्य हुआ जब उसको अपने ही द्वारा बनाया गया परिवेश तब जीवन में कहां रह गया किसी भी तरह का क्लेश जीवन के इस छोर से उस छोर तक साथ है गर जो गूढ़ अध्ययन द्वारा स्व-सृजित प्रतिकृति तो मृत्यु से भय कैसा, बढ़े चलो परिकल्पित आकृति से आज़ाद होकर ही तो मिलेगी असली मुक्ति © डॉ अर्चना टंडन