तलाश रिश्तों में रिश्ते की




गैर शब्द को कभी आत्मसात न किया
अपेक्षाओं को भी कुचला था सभी
जिम्मेदारियों के एहसासों में खुद को खोकर
तुममे खुद को पाने का अरमान पाला था कभी

पर कहते हैं न ,सपने सपने होते हैं
घनेरे हों या सुनहरे ,उनके अर्थ नहीं होते 
प्रतिबिम्ब और परछाईं तो अपनी हो सकती है
पर चित्रित चरित्र हमेशा पराए ही होते हैं

अपना समझा था सो शिकायत भी की
परायों से कहने की तो हिम्मत ही नहीं होती 
इसे भी तुम मेरी गुस्ताखी समझ लेना
और माफ़ कर देना खुद को
क्योंकि तुम्हारे होने से ही तो मैं हूँ
मेरे होने से मैं नहीं 


-- डॉ अर्चना टंडन



Comments

Popular posts from this blog

खुद्दारी और हक़

रुद्राभिषेक

आँचल की प्यास