सठियाते हुए सत्तर की तैयारी



क्यों उल्लू कहते हो खुद को
क्यों कहते हो कि मुंह सिल कर 
आँखें घुमा कर बस चारों तरफ देखना ही
नियति हो गई है तुम्हारी 

तुम, हाँ तुम 
जो शायद अब सत्तर के पार हो गए हो
क्यों नहीं खुद के ही अंदर फिर ढूंढ पाते
वो बच्चा
जीने के गुर सीखने से पहले वाला बच्चा
जब तुम अनायास ही मुस्कुरा देते थे
शायद याद कर अपने पिछले जन्म की बातें

वह मुस्कान
जो आनंदित करती थी माँ को
और मातृत्व की भावना जगा
हर लेती थी उसकी दिन भर की थकान 
एक भोली, पवित्र,निश्छल मोहिनी मुस्कान
घर के हर सदस्य को आकर्षित
आह्लादित करती मुस्कान

तुम भी तो अब बच्चे सरीखे ही हो
जिस तरह तुम सँभालते थे उन्हें
आज सँभालने में लगे हैं वो तुम्हें
तुम्हारे लिए ही तो वो हौसला लिए
फैसले ले रहे है क़ि
तुम्हारे द्वारा दी हुई सीखों से
वो अनवरत बिना डरे आगे बढ़ सकें
 
खुद से निकली धाराओं पर
विश्वास कर
ईश्वर प्रदत्त अनगिनत सुनहरे पलों का
उसकी हर अनुकम्पा का
शुक्रिया अदा कर,
तुम भी तो
अंतर्मन में ही सही 
कहीं गुनगुना सकते हो
मुस्कुरा सकते हो

तो चलो लौट चलो अपने बचपन में 
न टोको, न रोको न चौंको
बस मुस्करा कर ज़िन्दगी को देखो 
लौट आएगी रौनक तुम्हारे चारों तरफ
दरबान से सरदार बन
अपने आप को उल्लू कहना भूल 
बदलते ज़माने में फिर सम्पूर्णता पा 
गाओगे, गुनगुनाओगे, मुस्कुराओगे
और दोबारा और कई बरस जिन्दा रहने का 
अर्थ अनायास ही पा जाओगे

- अर्चना टंडन

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