खुद्दारी और हक़



खुद्दारी से हमेशा लबरेज़ रहा मैं
अपनी अपेक्षाओं को नहीं दर्शाया कभी
अपनों की एक आवाज़ पर 
न्यायपूर्ण युद्ध करने
निकल पड़ा मैं
तब मैं बलिष्ठ था, रूतबा था मेरा
सलाहकार भी था तब
तो इशारों से अपने मार्गदर्शन भी करता था
ज़रुरत पड़ने पर
सब की गुज़र हो, भलाई हो 
पारिवारिक उत्थान से सामजिक उत्थान हो
एक सपना देखा था मैंने
डिपार्टमेंट, परिवार और अपने मरीजोंको
मीठी गोली की पुड़ियों से मर्ज मुक्त कर
अपनी रेलवे की नौकरी के साथ
होमियोपैथी के रथ का सारथी बन
दीर्घकालिक सारभौमिक उत्थान 
पर विश्वास किया था मैंने

आज मैं जीर्ण हूँ, फिर भी खुद्दार हूँ
नहीं रखता अपेक्षाएं किसी से
हक़ क्या है ये कभी सोचा ही नहीं अपने लिए
अपनों से कोई हक़ की अपेक्षा रखता है भला
जिनके लिए हड्डियां गला दीं
उनसे क्या कभी हक़ की दरकार करूंगा ?
तुम मेरी खुद्दारी का आदर करते हो
तो हक़ खुद बा खुद ससम्मान दोगे
वरना तो इस तीन बाई छह
के पलंग पर ज़िन्दगी गुज़ार दी 
अपने छह बाई बारह के कमरे में
तो अब क्या चाह बची है?
खुद्दारी मेरी बनी रहे
हक़ की नहीं रही कभी दरकार
अपनी खाट और अपनी खुद्दारी के सिवा तुम पर सब न्योछावर किया
अब तो देखना है की तुमने मुझसे कितनी खुद्दारी पाई और कितना हक़

डॉ अर्चना टंडन


Comments

Popular posts from this blog

बेशकीमती लिबास

What Is Truth? A Doctor’s Reflection on Balance

Beyond Recognition: Discovering Peace in One's Own Existence