एक सफ़र जाना पहचाना सा था मगर कुछ अनजाना सा







साथ चले दूर तक चले

न थी बाँहों में बाहें

न कभी निगाहों में निगाहें

बंधन न था सिर्फ थी साफगोई

तृप्त भी था मन और न था अरमान ही कोई


फिर कैसा था ये सफ़र 

जब थी ही नहीं वहां कोई डगर

कि न ही कोई वास्ता था 

और अनजान सा एक रास्ता था

और चल पड़े थे हम महसूस करते हुए

एक अनजान प्यास और मिलन की एक आस


तर तुम भी थे तर मैं भी

फिर ये कैसी आग थी

जो बुझी हो कर भी बुझी न थी

और लगी होकर भी लगी न थी

जताने के अलफ़ाज़ भी थे अंदाज़ भी

जाने  फिर क्यूँ कह न पाते थे हम एक लफ्ज़ भी

दोनों के  तरकश में तीर भी थे  और बाहुबल भी 

फिर भी निशाना लगा कर न लगा पाते थे हम  एक तीर भी


माना कि जादू दोनों में टक्कर का था 

असर जिसका हुआ दोनों पर था

फिर भी  शुरुआत न हो पाती थी

 कभी इधर से न ही कभी उधर  से  

अंधेरों के गुम होने का और

रोशनी के फैलने की अनुभूति भी कहीं थी

तो गिर कर कहीं फिर उठने का एहसास भी

 जब फिर था न कोई अरमान ही

तो क्या था ये ,उस  ईश्वर का फरमान ही ?


अर्चना टंडन 



Comments

Anonymous said…
Nice one

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