एक अतृप्त प्यास या सच का एहसास





जागी हुई भी हूँ और जीवंत होने का एहसास भी है
फिर ये मानिंद –ए –तिश्नगी किस कमी का एहसास है ?
कभी सहारा  दो तो तर जाऊं और दो  तो अधीर हो जाऊं
करीब होते हुए भी फिर करीब आने का अरमान क्यूँ है ?

ये  कैसी दोस्ती , ये कैसी दुश्मनी  है  
कि देख के  निकल जाऊं   और   देखूं  तो बेचैन हो  जाऊं
रिश्ता  है , नाता है  या कि ये कोई  दैवीय  अनुकम्पा   है
कि तुम हो , साथ हो , फिर भी सिर्फ एक एहसास हो

इज़हार है , इंकार है  और साथ चलने का इक अरमान भी  
इप्तादा – ए उल्फत  है और एहसास –ए – तिश्नगी  भी
कभी मुखर तो कभी  ख़ामोश होते तुम ,और तुम्हारी हर अदा पर वारी जाती मैं  
कभी अनकहे बोलों और  कभी बेहिसाब झरते नगीनों  को समझने की चाह में अनवरत चलती मैं



है ये जन्म जन्मान्तर का बंधन तो फिर ये क्षणिक होने का एहसास  क्यूँ है
हर कमी को पूरी करते तुम और तुम में तुम को ढूंढती मैं
हर पल तुम साथ हो फिर भी क्या मैं कभी तुम्हे खोज पाऊंगी
अगर सच्चाई हो तुम तो क्या तुम तक मैं कभी पहुँच पाऊंगी ?

इसी उधेड़ बुन में अनवरत अपनी समझ को विस्तार देना है
क्योंकि तुम्हे जान कर समझ कर ही तो तुम्हे पाना है  
राहे ज़िन्दगी में समझ ही तो एक लहर है जो हर पल जवां होती है
ज्यों ज्यों समझ का नशा परवान चढ़ता है ज़िन्दगी और भी आसान होती है




अर्चना टंडन 


Comments

Popular posts from this blog

बेशकीमती लिबास

What Is Truth? A Doctor’s Reflection on Balance

Beyond Recognition: Discovering Peace in One's Own Existence