तारीख बदली है ,साल बदला है ; पर कहीं पर भी कुछ नहीं बदला है






अखबार उदासीन  ख़बरों से पटे पड़े हैं 
लावारिस बच्चे आज भी सड़कों पर घूम रहे हैं 
औरत की इज्ज़त कहीं भी महफूज़ नहीं है 
बाहर की क्या कहें वो तो अपने ही घर में महफूज़ नहीं है 
तारीख बदली है  , साल बदला है  ;
पर  कहीं पर भी कुछ नहीं बदला है 



बूढ़े माँ बाप को छोड़ , बच्चा घर से बहू संग जा रहा  है 
परदेस में घर बसा जायदाद भी अपने नाम करा रहा है 
घूसखोरी दादागिरी आज भी अपने चरम पर है  
बगैर इनके काम बनता किसी का नहीं  है 
तारीख बदली है , साल बदला है  ;
पर कहीं पर भी कुछ नहीं बदला  है 




गरीब आज भी दो रोटी के लिए कमा रहा है 
वो घर कि ज़रूरतों के लिए 
अपने बच्चों तक को काम पर लगा रहा है 
और अमीर गैरजरूरी चीजों में पैसा बहा रहा है 
वो तो अपने  नाकाबिल बच्चों के लिए 
शिक्षा और इज्ज़त  को खरीद पा रहा है 
तारीख बदली है ,साल बदला है  ;
पर कहीं पर भी कुछ नहीं बदला है 




कहीं क़त्ल कर तो कहीं बसी बसाई बस्ती उजाड़ ,
धर्म और मज़हब के लिए 
आदमी ही आदमी के खून का प्यासा है 
प्रेम और भाईचारे की भाषा भूल 
ईमान का क़त्ल कर 
वो आज भी अपनों का ही दुश्मन बना बैठा है 
तारीख बदली है  , साल बदला है ; 
पर कहीं पर भी कुछ नहीं बदला है 

----अर्चना टंडन 





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