एक सुनहरा सफर


 

साँसारिक सफर के 
हमसफ़र 
तुम और मैं
अपने अपने फन में मगन
गुफ्तगू करते
चलते गए अनवरत
और देखो तो
कहाँ तक निकल आये

आह्लादित हूँ मैं
तुम्हारी इस उम्दा पहचान से
इस सकारात्मक सोच से
इन  विवेकी अभिव्यक्तियों  से
इन मनीषी कथनों से
इन चिन्तनशील अदाओं से

तो फिर क्यों न आवाज़ दूँ
अपनी इन भावनाओं को
आकांक्षाओं को अपेक्षाओं को
कुछ गहराती कुछ उफनती
अंतर्मन की इन उम्मीदों को
और चलती रहूँ
छोड़ पीछे 
कुछ अंधकारमयी साए
लिए हुए शाश्वत एक
चिरकालिक 
पूर्णविराम की उम्मीद



अर्चना टंडन

Comments

Laljee Verma said…

Excellent poem. Congratulations for penning such thoughtful poetry.
Laljee Verma.

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