दिल से




उसे इक ख्वाब सा छिपा रक्खा था
सैलाब को उफनने से बचा रक्खा था
इक अरमान जो सदियों से सलाखों में था कैद
आज न जाने क्यूं उसने बेताब सा बना रक्खा था


रूठने मनाने के सिलसिले ने जिला रखा है
गिरते संभलते क़दमों ने संभाल रखा है
 होती एकसार जो अगर ज़िन्दगी
तो नीरसता से सराबोर रहती हर ख़ुशी  





दुश्मनी से न रहा कभी वास्ता

दोस्ती को भी कमजोरी न समझा कभी  

मतभेद तो दर्शाया खुल कर सदा 

मनभेद की मंशा न रही कभी 



साथ कहाँ कभी किसी का किसी ने दिया

ये तो देने लेने का सिलसिला 

ईश्वर ने ही तय किया  

भले का हमेशा भला और 

 बुरे का अंजाम बुरा ही हुआ 


कफ़न की खातिर कहाँ है ये सफ़र 

ये तो ज़िन्दगी को समझने की है एक डगर

खुद को समझ खुद को पाने की है एक दास्ताँ 

उसे  ही पाने  को  बढ़ रहा ये कारवाँ




अर्चना टंडन

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