यांत्रिक अस्तित्व की ओर




कल के किताबों 

में पढ़े लफ्ज़ और वाकये

याद हैं आज भी 

और लैपटॉप पर पढ़े जाने वाले

विस्तार लिए विवरण

चाहे हों शैक्षिक या सामयिक

आज पढ़ते हैं कल भूल जाते हैं

शायद ये उम्र का तकाजा है 

या यूँ कहूँ कि

शायद कल के गहराइयों में 

दबे तज़ुर्बे 

ज़िन्दगी के द्विअर्थी, द्विआयामी 

अस्तित्व को पहचान

नकार देते हैं

अर्थों को, मायनों को

कल किताब थी, आज लैपटॉप है

कल शायद ये शारीरिक अस्तित्व ही 

बाइनरी लैंग्वेज 

के इख्तियार में हो

इंसान तब्दील हो जाए एक मशीन में,

पैदा होते ही 

एक सर्किट का हिस्सा हो जाए

और यांत्रिक अस्तित्व की ओर बढ़ 

धरती के क्रमागत विकास में

एक अध्याय जोड़ जाए 

याददाश्त शायद तब 

चिरकालीन  हो जाए 

कैसा होगा वो समय 

जब सुख-दुख, दोस्ती- दुश्मनी, लगाव-अलगाव 

का महत्व ही नहीं रह जाए 

 और मनुष्य आज से भी ज्यादा यांत्रिक हो जाए

प्रश्न अब उठता है 

कि क्या आध्यात्मिकता भी 

याँत्रिकता का ही स्वरूप है ?

नहीं, क्योंकि यहाँ लगाव तो है 

बेशक अलगाव लिए 

डॉ अर्चना टंडन


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