कौन मेरा, क्या तू लागे

जे पी आज तुम पर कुछ 


तुझ में मैं हूँ कि नहीं
नहीं है वास्ता इससे,
मुझमें तू है
फखत इस बात का है गुमान 

तूने मुझ से मुझ को छीना
शायद था यही मेरा नसीब,
अब कैसे तुझमें खुद को पाऊँ
हूँ ढूँढ रही कोई तरकीब.




तुमने वक़्त रहते मुझे थामा ढहने से बचाया
और ख्वाब दिखाया
सात समंदर पार का
मुझे भी बहकना भाया
शायद वो तुम्हारी तरकीब थी
मुझे समुन्दर पार कराने की
तुम कभी न जान सकोगे
मेरे बहकने के पीछे का सच
मैंने जिस सफ़र का ख्वाब देखा था
उसमें तुम जैसा साथी शुमार था





मैं खुद अपने लिए थी एक पहेली
चली जा रही थी बिल्कुल अकेली
तुम आए मदमस्त चाल लिए
साथ हो लिए
तुम परिपक्व थे
शायद इसलिए

हम साथ होते हुए भी स्वछन्द थे
न मैंने कभी तुम्हे दोहराया
न तुमने मुझे
अपना अपना स्वरूप लिए
हमराज़ हम बनते गए
स्वछंदता अपनी हम खोते गए
ये तुम्हारा मुझे सुलझाने का तरीका अच्छा था
खुद से पहचान करा खुद से मिलवाने का सलीका अच्छा था

डॉ अर्चना टंडन



Comments

Popular posts from this blog

बेशकीमती लिबास

Beyond Recognition: Discovering Peace in One's Own Existence

What Is Truth? A Doctor’s Reflection on Balance