प्रसून इस गुलशन के
आतुर वो, खिल रहे हैं
कभी करीने से बनी क्यारियों में
तो कभी वीरान जंगल की खामोशियों में
अपना अपना स्वरूप लिए
लहलहाने को आतुर वो
बिखेर रहे हैं सुगंध कभी गुलशन में
तो कभी वीरानों में
ठीक वैसे ही जैसे भारत के सपूत कई
खिले थे इस देश की वाटिका में कभी
हों शिवाजी, महाराणा प्रताप या हों ईश्वर चंद विद्यासागर
हों सरदार पटेल, टैगोर या हों दिनकर
हों झाँसी की रानी या आनंदी गोपाल जोशी
हों कल्पना चावला या इंदिरा गाँधी
ये सब भी तो वो फूल थे
जो खिलकर अपने अपने उपवनों में
बिखेर गए थे अनगिनत रंग
और जगा गए थे उतनी ही उमंग
वसुंधरा के विभिन्न अनुभागों में
जैसे कि प्रसून बिखेरते हैं बागों में
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