इन्साफ खुदा का
हँसता मुस्कुराता था और संजीदा भी था बहुत
उसे तुमने दीवाना , मस्ताना करार
पर वो चल पड़ा
तुम्हारे द्वारा बुनी हुई रुतों की चाहत को नकार
तिलिस्म-ए -शहर को छोड़
सत्य की खोज में
बिना रुके ,बिना तड़पे ,बिना बुझे
मिले उसे और कई एहल-ए-वफा उस राह पर
कि जिन्हें गुजरे-राहे-वफ़ा में वो ढूंढता था बहुत
आज वो बना हुआ है कई बुझी नज़रों की नज़र
कि जिसे तुमने गिराया था कभी नज़रों से बहुत
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