समदृष्टि
शरीर और अंतरात्मा जब जुदा थे
छटपटाहट अपने चरम पर थी
उफनती दरिया जैसे चट्टानों से टकरा
शोर पैदा कर बिखर रही थी
जुदा होकर भी ये साथ थे
विक्रम और वेताल की तरह
अंतरात्मा निर्देशित करती थी
शरीर उहापोह में रह सोचता था
मन की जो इच्छा दर्शाई
तो आत्मा से विच्छेद होगा
और आत्मा की निर्देशित राह पर जो चला
तो स्वेच्छा से विमुख हो जाऊंगा
मन जो चलायमान था
अनेक प्रश्न समेटे था
जीवन के चक्रवातों से घिरा
इंद्रियों द्वारा नियंत्रित था
शरीर मन को काबू कर चलता तो था
पर अक्सर अपनी पकड़ खो देता
और विक्रम की तरह आत्मा से
जवाब तलबी की मनोदशा में विद्रोह कर उठता
विक्रम की तरह प्रश्न पूछ लेता
अंतरात्मा भी वेताल की तरह
अलग हो मौन धारण कर लेती
शरीर मन द्वारा ईजाद
भूल भुलैया में एक बार फिर भटक कर
आत्मा की मनुहार लगाने जैसे चल देता
जैसे जैसे उसे अंतरात्मा की
सत्यता का बोध हुआ
इंद्रियों पर उसकी पकड़
मजबूत होती गई
प्रश्न खत्म होते गए
अब वो वेताल को लादे नहीं था
बल्कि सहर्ष उसके साथ हो लिया था
वो समझ गया था
हर शरीर अपने वेताल के साथ है
वेताल द्वारा लोकात्मा के संचालन के लिए प्रयुक्त है
सद्चरित्र दुश्चरित्र की गाथाएं
अब गाथाएं न रह कर
उसका मार्ग प्रशस्त कर रही थीं
अंतरात्मा उसे स्वकर्म स्वधर्म का
अवलोकन करा रफ्तार दे रही थी
© डॉ अर्चना टंडन
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