प्रारब्ध या सामाजिक कोढ़
वो कचरे के ढेर में आधारभूत ज़रूरतों को तलाशते बच्चे
वो दो जून रोटी के लिए ज़िन्दगी फटेहाल गुज़ारते बच्चे
क्या कभी शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ पाएंगे
या यूं ही गाली गलौज करते, खुले में शौच करते, पाश्विक जीवन जीते
सद्गति को प्राप्त कर संदेश देते रह जाएंगे कि
ये प्रारब्ध का खेल ही तो वो भोगने आए हैं इस धरती पर
© डॉ अर्चना टंडन
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