"मृत्यु से भय कैसा" डॉ अर्चना टंडन द्वारा रचित कविता
खफा होने का उसका सिलसिला जारी रहा निरंतर
मनाने का क्रम भी चलता रहा समानांतर
विमुख कौन कभी किसी और से हुआ कोई
जब भी हुआ तो खुद से खुद की ही बढ़ी दूरी
हारा भी तो खुद से और जीता भी तो खुद से
रूठा भी तो स्वयं से और मनाया भी तो स्वयं को ही
दूसरों में उसने अपना प्रतिबिम्ब निहारना चाहा जब भी
आज़ादी पसंद वो भला क्यों चाहता रखना किसी को क़ैद में अपनी
अंतर्वेदना से ग्रसित उसने आज़ाद तो करना चाहा खुद को ही
स्वीकार्य हुआ जब उसको अपने ही द्वारा बनाया गया परिवेश
तब जीवन में कहां रह गया किसी भी तरह का क्लेश
जीवन के इस छोर से उस छोर तक
साथ है गर जो गूढ़ अध्ययन द्वारा स्व-सृजित प्रतिकृति
तो मृत्यु से भय कैसा, बढ़े चलो
परिकल्पित आकृति से आज़ाद होकर ही तो मिलेगी असली मुक्ति
© डॉ अर्चना टंडन
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