आगमन वानप्रस्थ का
आज वो कुछ जुदा से थे
खफा तो नहीं पर हाँ
कुछ खामोश से थे
शीर्षस्थ हो के भी
कुछ अपदस्त से थे
जो हमेशा प्रतीत हुए
मदमस्त से
न जाने आज क्यों वो
अपनी चिरपरिचित अदा को कह अलविदा
दुनिया के शोर के बीच कुछ गुमसुम से थे
शायद ये ज़मीर बेच मेल मिलाप का सलीका
रंगरोगन में लिपटा किन्तु
कालिख लिए अंतर्मन को दर्शाता चेहरा
अस्मत बेच उस पर चढ़ा रुआब शानोशौकत का आलम देख
उसकी असलितत पहचान
वो अंदर से कहीं दहल गए थे
सांसारिकता के इस भीषण रूप
को आत्मसात न कर पाने के बोध से
बिना किसी दुर्भाव से साँसारिक जुड़ाव से मुक्त हो
आत्मबल के बोध से घिरे खुद को तृप्त पा रहे थे
डॉ अर्चना टंडन
Comments