द्वंद्व के उस पार

 


न ये सही

न वो सही

सोच न रक्खो 

कभी सतही


न ये किनारा

न वो किनारा

बंध कर पाओगे

क्या कभी सहारा


संतुलन बना

बहते रहो लगातार

त्यज जो उपजे

सांसारिक द्वंद्व मझधार


न है ये बतकही

न ही है गुड़ की डली

पास न फटके मजबूरी

बात जो समझे ये बेशकीमती


अर्चना

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