कदाचित्
थिरकते समाँ में
थमी हुई रूहें
रौशन समाँ में
रोशनी तलाशती रूहें
इंद्रधनुषी फैलाव में
सिमटी हुई रूहें
अनुराग की बरसात में
विराग तलाशती रूहें
गुलामी की गर्त में डूब
आज़ादी तलाशती रूहें
बहिर्मुखी प्रतिभाओं के बीच
अंतर्मुखी होती रूहें
अनुरक्त करते माहौल से
विरक्त होती रूहें
शायद चंचलता में
स्थिरता ढूँढ रही थीं
क्षणिक अस्तित्व में
शाश्वत होने का गुर सीख रही थीं
सांसारिकता में खो
पारलौकिक सुख भोग रही थीं
डॉ अर्चना टंडन
Comments