वो मेरे कुछ बेहद अपने पल
वो मेरे कुछ बेहद अपने पल
रोज
सुबह सवेरे का सैर सपाटा
और मेरी रोज की ये दिनचर्या
धरती के छोर से झाँकती
हुई
वो सुबह की लालिमा
और मन को सुकून देती
मिटटी
की वो सोंधी खुशबू
फूलों
के वो चटक
रंग ,
और वो उड़ान
भरते जीव जंतु
कहीं
है कोयल की कूक
तो कहीं है वानरों
का उत्पात
दीखता है हर जगह
उस ईश्वर का ही प्रताप
कभी
छायाचित्र लेना
तो कभी दूब पर यूँ ही बैठ जाना
कभी पतंगों को हवा में स्थिर
तो कभी इठलाते हुए उड़ते निहारना
कभी
बादलों का गरजना
तो कभी जम कर बरसना
कोमल
पौधों का मुर्झाना
तो
कभी ख़ुशी से लहलहाना
भ्रमण
करते ये देखते हुए करती हूँ
अपनी सोच
का विस्तार
और धीरे धीरे हौले हौले लेता
है
एक सुप्त सपना आकार
अपनी
सोच को देती हूँ
फिर एक प्रेरणामई स्वरुप
जो लेती है
कागज़ पर
एक संवेदनशील कविता का रूप
अर्चना टंडन
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