कुबूल हुई प्रार्थना



थी एक प्रार्थना

जो  पूरी न हो सकी थी कभी

था एक भाव जो चाह कर भी 

महसूस न हुआ था कभी

सुलग रहा था अंदर ही अंदर कहीं कुछ

जो कचोट रहा था उसे भीतर ही भीतर 

उस आस को पाले 

बीत रहे थे बरस दर बरस 

और वो मुरझा रही थी

धीरे धीरे टहनी पर अपनी पकड़

खोती जा रही थी


तभी उसने आकर विश्वास और अनुषक्ति 

का एक ऐसा राग छेड़ा

जो जीवंत कर गया उसकी काया को

और सीखा गया एक परिभाषा

पूरी कर गया उसकी खुद को खुद से मिलाकर

एक निराकार के आकार पाने की अभिलाषा

उसकी प्रार्थना के क़ुबूल होने का 

यह ढंग रुचिकर था

उसमें वो था और खुद में वो थी, फिर भी 

एक सम्बन्ध था जो दृष्टिगोचर था


© डॉ अर्चना टंडन


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