नज़रिया





शब्द , शब्द कहाँ हैं रह जाते

किरदार बदलते ही
उनके अर्थ हैं बदल जाते

बूझना नहीं चाहती

जूझना नहीं चाहती
जिंदगी की पहेली है इक रास जब
तो इसे बिन समझे 
हूँ जीना अब मैं चाहती

इतना न झुको 

कि बिन पेंदी के लोटे कहलाओ
और मत अकड़ो इतना
कि हवा के झोकों से टूट जाओ
इतराओ , लहराओ ,उफनो ऐसे 
कि ज़मींदोज़ होने से बच पाओ

नजरिया अपना कुछ ऐसे बदला 

शीशे में उनके अक्स को
यूँ उतार कर समझा
कि हर शख्स 
लिखा के आया है अपनी किस्मत
ये धब्बे जो हैं 
ये हैं उसकी अस्मत
हैं उसका सुकून
उसका मरहम
उसकी दैवीय सज़ाओं से मुक्ति 
उसकी आत्मा की शान्ति 
उसकी खुद पर विजय 
और ईश्वर प्रदत इक उद्देश्य

डॉ अर्चना टंडन


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