एक अतृप्त प्यास या सच का एहसास
जागी हुई भी हूँ और जीवंत होने का एहसास भी है फिर ये मानिंद –ए –तिश्नगी किस कमी का एहसास है ? कभी सहारा दो तो तर जाऊं और न दो तो अधीर हो जाऊं करीब होते हुए भी फिर करीब आने का अरमान क्यूँ है ? ये कैसी दोस्ती , ये कैसी दुश्मनी है कि देख के निकल जाऊं और न देखूं तो बेचैन हो जाऊं रिश्ता है , नाता है या कि ये कोई दैवीय अनुकम्पा है कि तुम हो , साथ हो , फिर भी सिर्फ एक एहसास हो इज़हार है , इंकार है और साथ चलने का इक अरमान भी इप्तादा – ए उल्फत है और एहसास –ए – तिश्नगी भी कभी मुखर तो कभी ख़ामोश होते तुम , और तुम्हारी हर अदा पर वारी जाती मैं कभी अनकहे बोलों और कभी बेहिसाब झरते नगीनों को समझने की चाह में अनवरत चलती मैं है ये जन्म जन्मान्तर का बंधन तो फिर ये क्षणिक होने का एहसास क्यूँ है हर कमी को पूरी करते तुम...