बेशकीमती लिबास
बेशकीमती लिबास जी करता है तुझे अपना कहना छोड़ दूं फिर न कोई आशा न निराशा न आरज़ू ऐसा क्यूँ होता है कि आज भी मैं इन अपेक्षाओं से उभर नहीं पाती आज़ाद होना चाह कर भी क्यूँ आज़ाद नहीं हो पाती क्यूँ ये कशिश आज भी है मन में कि कहीं हम आज भी अधूरे हैं क्यूँ अतृप्त सा ये एहसास है क्यूँ ये आगोश की तड़प और चाह है क्यूँ ये खुद को न समझा पाने की कसक तेरे अपना होने पर भी क्यूँ है ये हिचक क्यूँ मैं जुदा नहीं कर पाती वो अपनी तन मन से भी ऊपर उठ कर एक चाह की अपेक्षा जीवन में सब कुछ पा कर भी एक अधूरेपन का एहसास क्यूँ है ? सदा मुस्कुराते रहने पर भी कहीं भीतर ये तड़प क्यूँ है ? लोग कहते हैं आत्मा लगाव नहीं रखती ये तो शरीर के लगाव हैं जब आये हैं इस जहाँ में और शरीर एक स्वरुप है तो शरीर से जुडी कुछ जिम्मेदारियां भी...